Friday, March 9, 2012

आज मैं उसके मोहल्ले में जा के देख आया

आज मैं उसके मोहल्ले में जा के देख आया
वहां वो दिल नशीन जाने कब से रहती नहीं
वो रहा करती थी बेफिक्र सी शेरों में मेरे
पर मेरी शायरी भी उसकी बात कहती नहीं
या वो झूठी थी
या कि लफ्ज़ मेरे झूठे थे
उसके चट्टान से दिल से
हज़ार बार गिरे
मेरे नाज़ुक़ से लफ्ज़
टुकड़ा टुकड़ा टूटे थे
कोई तो होगी बात ऐसे मन धधकता है
वरना लावा की नदी इस तरह तो बहती नहीं

आज मैं उसके मोहल्ले में जा के देख आया
वहां वो दिल नशीन जाने कब से रहती नहीं

5 comments:

सतीश पंचम said...

ओह.....इन पंक्तियों को पढ़ जेहन में वो अंग्रेजी फिल्म घूम गई जिसमें कि विश्व युद्ध के दौरान छद्म रूप से डेरा डाले एक पायलट और स्थानीय युवती का प्यार पनपता है। एक दिन अचानक आदेश होता है और पायलट को अपने बमवर्षक विमान का मुँह उस लड़की के कस्बे की ओर मोड़ना पड़ता है। युद्ध खत्म होने पर पायलट अपने उस प्यार को देखने उसी जमीन पर लौटता है। उसे वहां अपनी प्रेमिका नहीं मिलती । मिलते हैं तो नेस्तनाबूद घर..... बर्तनों के कुछ टुकड़े जिसमें दोनों साथ बैठकर कभी चाय पिया करते थे।

आपकी ये पंक्तियां तो सटीक बैठती हैं उस फिल्म के अंतिम दृश्यों पर।

फिल्म का नाम मुझे याद नहीं वरना जरूर बताता।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

खूबसूरत खयाल

Pooja Priyamvada said...

brilliant Neelesh ! its amazing how you capture love and its pain...reminds me of Shiv Kumar Batalavi !

Beginning at the End said...

lovely poem sir.....!!!!!

ravisinghj said...

amazing lines.

(All photos by the author, except when credit mentioned otherwise)