मेरे दोस्त कहते हैं मैं अक्सर महिलाओं के ख्याल में रहता हूँ. सच कहते हैं.
देखो ना -- हफ्तों बीत गए. जाने कब फूटा था अहमदाबाद में बम. जाने कब आयी थी बिहार में बाढ़. फिर भी दो औरतों को अपने साथ लिए घूम रहा हूँ. पीछा ही नहीं छोड़तीं कमबख्त.
एक तो मर भी चुकी है.
फल के ठेले के पास खड़ी थी, पीली साड़ी पहन कर. अमरुद ले रही थी. दाहिने हाथ में प्लास्टिक की थैली थी. बाएँ हाथ में कुछ छोटे नोट दबाये थी. ठेले पर सेब भी थे, अनार भी. लेकिन अमरुद सस्ता होता है न.
अमरुद लिया नहीं, कि बम फट गया. धडाम से गिर पड़ी मुई, पीठ के बल, उसी अहमदाबाद के बाज़ार में. आतंकवादी ने किसी छोटे से कमरे में बैठ के जो बनाया था, उस बम से निकले पतले पतले लोहे के टुकड़े उसके बदन को चीर गए.
फल वाला भी मर गया. बेकार में रुपैय्या रुपैय्या भाव ताव करता था, अब पता चला ना, आटे दाल का भाव.
और वो पीली साड़ी वाली औरत ... कौन जाने उसके मुंह से कुछ निकला होगा कि नहीं. "आssssssssss" बोली होगी क्या? सर जब ज़मीन से लड़ा तो धमक लगी होगी क्या या तब तक मर गयी होगी?
थैली से अमरुद बिखर गए, फैल गए दूर तक.
अक्सर सोचता हूँ उसके बारे में.
कौन पीछे उसकी राह देखता होगा उस शाम? किस गाँव की कितनी घोर गरीबी छोड़ कर उसका परिवार शहर आया होगा, ताकि क़र्ज़ से फांसी न लगानी पड़े ...
किस से कह कर आयी होगी "बस अभी आयी बेटा, अमरुद लाने जा रही हूँ"? कौन नाराज़ होता होगा, "इत्ती देर हो गयी, अमरुद लाने में इत्ती देर लगती है क्या?"
सच बात है. अमरुद लाने में इत्ती देर कहाँ लगती है. हाँ, मरने में थोड़ा वक्त ज़रूर लग जाता है. धीमी धीमी मौत मरते हैं ना इस मुल्क के करोड़ों लोग.
अहमदाबाद के उस बाज़ार से सैकडों मील दूर, बिहार के मधेपुरा जिले के लखीपुरा गाँव में रहती है दूसरी औरत.
मरी नहीं है अभी. हाँ मरने चली थी उस रोज़.
गाँव आयी रक्षा नाव वापस जाने को थी, खाना बाँट कर. नैशनल डिसास्टर रेस्पोंस फोर्स के कमांडेंट डैनियल अधिकारी के पास खाने का आख़री थैला बचा था, और सारा गाँव भूखा था. जैसे ही थैला हवा मैं उछला, वो पागल औरत पानी में कूद गयी. पेट जो भरना था परिवार का.
मर सकती थी. लेकिन भूख से मरने से तो ज़्यादा इज्ज़तदार होती ये मौत.
थैली उसके हाथ में आयी क्या, एक और आदमी कूद गया पानी में. लड़ते रहे वो कितनी देर तक.
मुझे इस कहानी का अंत नहीं मालूम है. पता नहीं उस पागल औरत के घर उस दिन रोटी बनी या नहीं. क्या पता अब तक जिंदा भी है या मर गयी अगली नाव की राह देखते देखते.
पर अक्सर दिल्ली में लाल बत्ती हो जाती है, तो गाड़ी में बैठा बैठा भीख मांगने वाले बच्चों को देख कर सोचता हूँ -- अगर उन दो औरतों के बच्चे कभी भटकते हुए आमने सामने मिल गए तो पता है क्या बोलेंगे एक दूसरे से?
"माँ तो कभी घर से मत निकलने देना ..."
(चित्र: इन्टरनेट/कमांडेंट डैनियल अधिकारी, एन डी आर ऍफ़ )