Friday, June 25, 2010

सोचता हूँ


सोचता हूँ कि काश तुम होते
कम से कम तन्हा ना ये ग़म होते

सोचता हूँ कि वो कैसे टूटा
क्यूँ ना जाना कि रिश्ता कांच का था
गीली मिट्टी की तरहा फिसल गया
दोष मिट्टी का था कि हाथ का था?
काश इतने सवाल ना होते
कुछ तो तकलीफज़दा कम होते

सोचता हूँ कि काश तुम होते
कम से कम तन्हा ना ये ग़म होते

सोचता हूँ कि कैसे होगे तुम
जो मिलूंगा तो क्या कहोगे तुम
जो कहूँगा, कि याद करते हो?
सच कहोगे कि चुप रहोगे तुम?
काश फिर याद के कोहरे होते
काश फिर बातों के मौसम होते

सोचता हूँ कि काश तुम होते
कम से कम तन्हा ना ये ग़म होते

(All photos by the author, except when credit mentioned otherwise)