Wednesday, February 8, 2012

एक बेदर्द से, बेदिल शहर में


एक पुरानी कविता लिखी थी, याद आ गयी सो शेयर कर रहा हूँ ...

छब्बीस जुलाई, २००८ को अहमदाबाद में बम के धमाके हुए और ये तस्वीर अख़बारों में छपी थी ... इस औरत के जीवन की एक काल्पनिक कहानी मैंने इस कविता में लिखने की कोशिश की ...



एक बेदर्द से, बेदिल शहर में
थी इक औरत, नहीं है अपने घर में
सुना है बम ने उसकी जान ले ली

(मगर वो बरसों पहले मर चुकी थी
पुराने ग़म ने उसकी जान ले ली)

एक बेदर्द से, बेदिल शहर में
वो फल वाले के ठेले पर खड़ी थी
थी इक मुट्ठी में थोड़ी रेज़गारी
औ' दूजे हाथ में थैली बड़ी थी
हुआ ज्यों ही धमाका गिर पड़ी वो
कि जैसे खून में लिपटी हुई शाखें गिरी हों
कि जैसे ख्वाब की खुशबू अभी ताज़ा मरी हो

भिंची मुठी में थी पैसों को जकड़े
और इक अमरुद का थैला वो पकडे
वो बस लेटी रही ...
बगल में ठेले वाला भी पड़ा था
लिपट कर खून से,
और अमरुद कितनी दूर तक
बिखरे हुए थे

थी इक औरत, नहीं है अपने घर में
सुना है बम ने उसकी जान ले ली
जुनूं के, रंज के, तकलीफ के
हसीं मौसम ने उसकी जान ले ली

वहीं कुछ दूर पे,
इक छोटे घर में
दो बच्चे बैठे थे खामोश, गुमसुम
अभी टॉफी के ऊपर जंग ताज़ा लड़ चुके थे
कि सोचा सांस ले लें
अभी तो लौटेगी बाज़ार से माँ
औ' फिर अमरुद पे लड़ना पड़ेगा
सुबह से जिद पे थे कमबख्त,
हैं "अमरुद खाने!"
थे माँ के पास कुछ सोलह रुपैय्ये
गयी थी हार कर बाज़ार तक
अमरुद लाने

तुम्हे क्या याद है?
ऐसे ही इक दिन पापा भी
चल कर गए थे
गाँव के घर से
वहां अमरुद का इक पेड़ था
छप्पर के पीछे
(कभी अमरुद की ख़ातिर किसी को
जान थोड़ी देनी पड़ती थी!
थे मरने के वहां
बढ़िया बहाने!)


पढ़ा तो होगा ना अखबार में तुमने
कहीं कोने में शायद
जब उनके बाप ने फाँसी लगायी थी
उसी अमरुद के उस पेड़ से लटका हुआ था
दहकते क़र्ज़ में डूबा हुआ
बीवी की लाल साड़ी से
गला घोंटे हुए
किसान इक और देखो मर गया था

और बाकी गाँव अपने छोड़ कर
जा रहे थे सारे उस बेदिल शहर
नयी बेवा भी उन में चल पड़ी थी
कहीं अमरुद का वो पेड़ पीछे छोड़ आई
हर इक दिन थोड़ा थोड़ा मर रही थी

अहमदाबाद के बाज़ार में,
कोई आतंकवादी क़त्ल करता
इस से पहले मेरे न्यू इंडिया ने
इक चमकती लाल साड़ी को
किसानों के लहू से सुर्ख कर के
गला घोंटा था उसका

एक बेदर्द से, बेदिल शहर में
थी इक औरत, नहीं है अपने घर में
सुना है बम ने उसकी जान ले ली


मगर ये झूठ है यारों!
मगर ये झूठ है यारों!
थी कब का हम ने उसकी जान ले ली ..
थी कब का हम ने उसकी जान ले ली ..


(All photos by the author, except when credit mentioned otherwise)