"क्या आप ज़रा मेरी तनख्वाह बढ़वाने की बात कर सकते हैं सर? मैं इस साल भी अपनी बेटी को ठीक स्कूल में दाखिल नहीं करवा पाया. आठ सौ रुपये लग जाते."
मैं झारखण्ड में घाटशिला नाम के कसबे में था, और एक हिन्दी समाचार पत्र के स्थानीय साथी मेरे मित्र, अपने बॉस, से बेहतर पगार का निवेदन कर रहे थे.
घाटशिला के पत्रकारों की कहानी नक्सलवाद से सारे इलाकों की कहानी है. नक्सलवाद कवर करना कश्मीर जैसा चमक धमक भरा सेक्सी काम नहीं है. कम-ज़्यादा खतरे दोनों जगह हैं, लेकिन नक्सल क्षेत्र का रिपोर्टर कश्मीर के पत्रकार की तरह टनाटन कॅरिअर नहीं बना पाएगा, बड़ा मकान नहीं बना पाएगा, कार नहीं ले पाएगा, किस्मत ने साथ भी दिया तो डॉलर नहीं कमा पाएगा, और अमरीकी लहजे में बात करने वाले दोस्त नहीं बना पाएगा.
ये तो गरीब का विद्रोह है.
ये तो गरीब रिपोर्टर की कहानी है।
घाटशिला में मेरे स्थानीय साथी का दफ्तर भयानक गरम था, जैसे कमरे के अन्दर ही लू चल रही थी. सिर्फ़ एक पंखा था, धीमी रफ्तार में चलता हुआ. रौशनी कम थी. चाय की दूकान बंद थी. उनके अपने अदम्य उत्साह और मक्खी मारने के प्लास्टिक के यन्त्र के अलावा यहाँ उनके जोश को जिंदा रखने के लिए था ही क्या यहाँ.
नक्सल क्षेत्रों में काम कर रहे ये साथी इन्हीं अंधेरे कमरों से इस विद्रोह के समाचार दुनिया को देते हैं. जब गुमनाम नक्सल प्रवक्ताओं के फ़ोन आते हैं, या खूबसूरत लेखनी में लिखी प्रेस रिलीज़ कोई दे कर जाता है, ऑपरेशन के बारे में बताने के लिए. नई मौतें, नए आक्रमण, नया पुलिसिया आक्रोश.
वो मेरे साथी तब भी बिना थके चलते रहते हैं जब पुलिस उन पर नक्सली जासूस होने का आरोप लगाती है, जब उनके फ़ोन टेप होते हैं.
वो मेरे साथी तब भी बिना थके चलते रहते हैं जब पुलिस उन पर नक्सली जासूस होने का आरोप लगाती है, जब उनके फ़ोन टेप होते हैं.
वो चलते रहते हैं, इसलिए नहीं की कोई तनख्वाह में बढोत्तरी या बॉस से तारीफ की ईमेल उनका इंतज़ार कर रही है. वो चलते रहते हैं क्यूंकि वो जानते हैं कि कहीं न कहीं वो भी कहानी का हिस्सा बन गए हैं. अपमानजनक गरीबी में रह रहे लोगों कि जिंदगियों से इतने जुड़ गए हैं कि अब पीठ दिखा कर कहीं जा भी नहीं सकते.
वो भारत के असली पत्रकार हैं. बरसों बरसों इन्हीं कच्चे रास्तों पर चलने के बाद भी, वही कहानियाँ बार बार लिखने के बाद भी, उनकी आँखें तब भी नम हो जाएंगीं जब वो सुनेंगे उस बूढी औरत कि कहानी जो एक रात बुरी तरह जल कर मर गयी -- क्यूँकि ओढ़ने को कम्बल नहीं था और आग के ज़्यादा पास सो गयी थी.
वो कभी कोई पत्रकारिता का पुरस्कार नहीं जीतेंगे, मोबाइल फ़ोन के नए मॉडल नहीं खरीद पायेंगे, प्रधान सम्पादक जी से तारीफ के दो शब्द नहीं सुन पायेंगे, और टीवी स्टूडियो में बैठ कर अपनी बात कहने के लिए नहीं बुलाए जाएंगे.
और जो ये सब कर पाए हैं, उनसे ये मेरे साथी कभी रंज नहीं करेंगे.
सलाम करता हूँ उन्हें.
पाठकों में अगर कोई प्रधान संपादकगण भी हों, तो कृपा कर के मेरे दोस्तों को तारीफ भरा एक फ़ोन कर दें, एक कूलर दिला दें, और थोडी सी तनख्वाह बढ़ा दें -- ताकि इस बार नए सेशन में एक साथी पत्रकार अपनी बेटी को किसी ठीक ठाक स्कूल में भरती करा पाये.
नीलेश