Wednesday, June 23, 2010

रात से याद के काजल को



रात से याद के काजल को
मिटाऊं कैसे?
जिसका दर छोड़ दिया उस को
भुलाऊं कैसे?

तू बुरा है, मुझे ये कह के उसने छोड़ दिया
थामा उम्मीद का यूँ हाथ कि मरोड़ दिया
मैंने भी कांच से पत्थर का वो घर तोड़ दिया
रखा हथेली पे यादों का शहर, तोड़ दिया




लेकिन अब सोचता हूँ न शहर बचा न है घर
जाए जो तनहा मुसाफिर, तो अब ये जाए किधर?
इस बयाबां में अब न तू है, न मैं मिलता हूँ
अपना साया हूँ खुद को ढूँढने निकलता हूँ




तुझसे नाराज़ हूँ मैं, खुद से भी नाराज़ हूँ मैं
नाम न लेता मेरा, जैसे हसीं राज़ हूँ मैं
नाम उसका मैं फिर से होठों पे लाऊं कैसे?
रूठी उम्मीद को बोलो मैं मनाऊं कैसे?

रात से याद के काजल को
मिटाऊं कैसे?
जिसका दर छोड़ दिया उस को
भुलाऊं कैसे?


अब शहर शहर भटकता हूँ, तुझ से दूर हूँ मैं
तू ही कहती थी ना मुझसे, तेरा नासूर हूँ मैं
मुझको ना छूना तू, कि अब ज़हर में चूर हूँ मैं
मैं तो पागल फकीर हूँ, तेरा फितूर हूँ मैं
मैं तो वो ज़ख्म हूँ तेरा जो ना भरेगा कभी
मैं परिंदा हूँ जो सूरज से जल मरेगा कभी
फिर भी दो बूँद तू आंसू के ना धरेगा कभी
मुझको खोने का तू अफ़सोस ना करेगा कभी


मुझको मालूम है ये सब, है फिर भी इतना पता
सिवाय तेरे मेरे दिल में और था ही क्या?
राज़ इतना सा है, खुद से ये छुपाऊं कैसे?
छोड़ना चाहूँ तुझे, छोड़ के जाऊं कैसे?

रात से याद के काजल को
मिटाऊं कैसे?
जिसका दर छोड़ दिया उस को
भुलाऊं कैसे?

(All photos by the author, except when credit mentioned otherwise)