इक अजनबी है अजनबी शहर को आ गया
होटल जो लौटा तो लगा कि घर को आ गया
तन्हाई से मिलना हुआ कितने बरस के बाद
कमबख्त को करते रहे कितना तरस के याद
कितने ये चेहरे ओढ़ के दिल्ली में खो गयी
ख़त लिक्खे, पुकारा किये, खामोश हो गयी
इक छोटे से शहर में है शरमा के फिर मिली
"कैसे हो अजनबी?" है ये फरमा के फिर मिली
मैं क्या बताऊँ तुमको कि मैं कैसा हूँ क्या हूँ
तुम छोड़ गयीं मुझको मैं वहीँ पे खड़ा हूँ
इक याद का टुकडा मेरे घर भूल आई थीं
मैं आज ढूँढता उसी मंज़र को आ गया
होटल जो लौटा तो लगा कि घर को आ गया ...
अब लगता है रहता हूँ यहाँ कितने बरस से
अब रोज़ मैं तय करता हूँ जुगनू भरे रस्ते
हलकी सी सर्द है हवा, अक्सर निकलता हूँ
मैं धुंध का कम्बल लपेटे हाथ मलता हूँ
गीली सी कुर्सियों पे रोज़ चाय पीता हूँ
इक याद शुगर फ्री है, उसे घोल लेता हूँ
हैं चीनी भरी यादें भी, पर पी न पाऊंगा
इतनी मिठास ना दो मुझे, जी न पाऊंगा
तन्हाई भरे शहरों में उकता सा गया हूँ
खुद से ही ऊब कर मैं इस सफ़र को आ गया
होटल जो लौटा तो लगा कि घर को आ गया ...
चित्र साभार : इन्टरनेट (http://www.thelatestone.com/, http://www.vacationhomerentals.com/, http://www.makemytrip.com/)
13 comments:
वाह! सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति और चित्र संयोजन. बधाई.
दोस्त
कविता खूबसूरत है या कवि किसी गहरी वेदना से गुजर रहा है, तय करना मुश्किल है। कौसानी के ये रास्ते मुझे भी पहचाने से लगते हैं। दिल्ली आ जाओ। इस शहर की खासियत यही है कि खुद से मुलाकात नहीं होती। दूसरे मिलते हैं तुमसे और चले जाते हैं। ऐसी मुलाकातों के दौर में हम समझते हैं कि खुद से मुलाकात हुई है।
अजनबी शहर की अजनबी राहों पे अपने भी ये क़दम अजनबी हो गए, अपने ही गाँव से आँचल की छांव से एक दिन हम भी अजनबी हो गए। अजनबी सा घूमता हूं, ख़ुद की ही ढूंढता हूं, ऐसे आगे भागे हम के पीछे धूल छोड़ गए। अब अजनबी महफ़िलों के अजनबी काफ़िलों मे जितने भी थे अजनबी, वो हमनशीं सब हो गए....
लाजवाब सर, रविश जी ने सही कहा है कि कवि वेदना से गुज़र रहा है... हम कामना करते हैं कि जल्दी आप फिर से भौतिकता में रहने के आदी हो जाएं.. क्योंकि रहना तो इसी दुनिया में ही पड़ेगा ना...
कभी घर भी घर नहीं लगते और कभी होटल भी घर लगने लगते हैं. कैसी पहेली है... लेकिन सुंदर है.
Just too good...excellent!
AMIT ROY
HT CHANDIGARH
तन्हाई भरे शहरों में उकता गए तो
लौट आओ इस शहर में
ये शहर खड़ा है तुम्हें आगोश में लेने को
दिल्ली हाट से पहले के पुल पे
जहां से दिखते हैं सपाट मैदान..
आ जाओ हम यही ख जाएंगे..
तन्हाई से तुम्हें उबारेंगे....
अब आ भी जाओ..
(अच्छी लगी, कविता..इसे तो मैं खूबसूरत ही कहूंगा)
इक याद शुगर फ्री है, उसे घोल लेता हूँ
हैं चीनी भरी यादें भी, पर पी न पाऊंगा
इतनी मिठास ना दो मुझे, जी न पाऊंगा
सुन्दर पंक्तियाँ , आभार
back with a bang. lovely piecee.
umda hai....nilesh sir...maine 13 b ke aasman odhkar ke baad fir se aapko padha nahi suna./....bahut umda hai...sikandar mein bhi aapko pura suna tha....
beautiful neelesh! for some of us, the dilemma remains that we feel at home everywhere, and yet nowhere! Have loved everything you have written, your songs, your stories...and yes, gulon mein rang bhare was just too gooood!!!
kyaa baat hai...dil ko chhoo liya..!!!
Bhaut Khoobsurat ..
Hello sir, I read your stories in HT. Just randomly landed on your blog to discover you as a perosn beyond a journalist. Perhaps the shades are fascinating.
Look forward to read more
Regards
Arpita Sarkar, Mumbai
Very True !!!!!
Same happens with me ......जब मैं महीनो और कभी कभी सालों बाद घर जाती हूँ तो लगता है कि होटल में आ गयी हूँ ,अब तो दस बरस हो गए है बाहर रहते रहते.....यही अस्त-व्यस्त सी जिंदगी अच्छी लगती है वही किताबों,कपड़ो,लैपटॉप और दुनिया के तमाम तामझामों के बीच सोना ...घर जाकर बिस्तर पर सिकुड़ने डालनी padti है वर्ना नींद नहीं आती.....अचानक लिखते -लिखते कुछ खास खाने का मन करने लगता है .....बस stoll डालकर बाहर निकल जाओ और जब तक वही कुछ खास चीज na खा लो lines आगे नहीं बढती....घर पर तमाम चीजें होती है पर कभी उनकी तरफ देखने का मन भी नहीं करता केवल mom के बनाये छोले bhatoore छोड़कर और उन्हें खाकर तो बस नींद ही आती है .......Sonali Singh
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