Sunday, October 10, 2010

माफ़ करियेगा, मिर्ज़ा ग़ालिब


Friends ... For the national book tour of "The Absent State", I wrote a ghazal that is a tribute to Mirza Ghalib, and in a long-standing tradition of Urdu poetry, takes the mukhda (top two lines) of the original and rewrites the rest as a take on modern India. Many friends who heard it live have asked for the lyrics. So here goes: To be sung to the tune of Jagjit Sungh's original ...




हजारों ख्वाहिशें ऐसीं, की हर ख्वाहिश पे दम निकले

बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले



सुना था वक़्त की मुट्ठी में

खुशियों के खजाने हैं

तो फिर कमबख्त क्यूँ देहलीज़ पे है

रख के ग़म निकले

बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन

फिर भी कम निकले ...


बने हो रहनुमा जो तुम

तो बातें रहनुमा की हों

क़सम खाना कुछ इस तरहा

के झूठी हर क़सम निकले

बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन

फिर भी कम निकले ...


सुना था किस्मतें बदलेंगी

कर लेते सबर हम भी

ज़रा सी थी ख़ुशी मांगी

ज़रा से लम्हे कम निकले

बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन

फिर भी कम निकले ...


हैं तनहा हम, मगर चलते रहेंगे

देख लेना तुम

ये दुनिया भी चलेगी कल

जहाँ से आज हम निकले

बहुत हा मेरे अरमान लेकिन


फिर भी कम निकले ...


हज़ारों ख्वाहिशें ऐसीं की

हर ख्वाहिश पे दम निकले

बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन

फिर भी कम निकले ...
(All photos by the author, except when credit mentioned otherwise)