Friday, August 12, 2011

इक रोज़ बयाबान में ...


इक रोज़ बयाबान में
देखा तो था हैरान मैं
आकाश पे जड़ा था
बादल से जो कूदा था
तेरे ग़म का वो लम्हा था
तन्हाई का मुखड़ा था
इक मोती सा टुकड़ा था
कोई भेस नया धर के
कहीं दूर से उतरा था
कुछ और कहाँ था वो
तेरी आँख का कतरा था ...

कुछ और कहाँ था वो
तेरी आँख का कतरा था ...
(All photos by the author, except when credit mentioned otherwise)