शाम का टुकड़ा
धूप का कोना
सिरा नींद का
मन का बिछौना
उखड़ी उखड़ी सी दोपहरें
शाम लगाये आँख पे पहरे
रात महल में ख्वाब न ठहरे
आज का दिन बेज़ार लिखा है
लेकिन तेरी ग़ज़ल के ज़ेवर
पहन के बदले रात के तेवर
तन्हाई भी अब महफ़िल है
लम्हों पर गुलज़ार लिखा है
जन्मदिन मुबारक, गुलज़ार साहब!
-- आपका एकलव्य, नीलेश
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