आज मैं उसके मोहल्ले में जा के देख आया
वहां वो दिल नशीन जाने कब से रहती नहीं
वो रहा करती थी बेफिक्र सी शेरों में मेरे
पर मेरी शायरी भी उसकी बात कहती नहीं
या वो झूठी थी
या कि लफ्ज़ मेरे झूठे थे
उसके चट्टान से दिल से
हज़ार बार गिरे
मेरे नाज़ुक़ से लफ्ज़
टुकड़ा टुकड़ा टूटे थे
कोई तो होगी बात ऐसे मन धधकता है
वरना लावा की नदी इस तरह तो बहती नहीं
आज मैं उसके मोहल्ले में जा के देख आया
वहां वो दिल नशीन जाने कब से रहती नहीं
5 comments:
ओह.....इन पंक्तियों को पढ़ जेहन में वो अंग्रेजी फिल्म घूम गई जिसमें कि विश्व युद्ध के दौरान छद्म रूप से डेरा डाले एक पायलट और स्थानीय युवती का प्यार पनपता है। एक दिन अचानक आदेश होता है और पायलट को अपने बमवर्षक विमान का मुँह उस लड़की के कस्बे की ओर मोड़ना पड़ता है। युद्ध खत्म होने पर पायलट अपने उस प्यार को देखने उसी जमीन पर लौटता है। उसे वहां अपनी प्रेमिका नहीं मिलती । मिलते हैं तो नेस्तनाबूद घर..... बर्तनों के कुछ टुकड़े जिसमें दोनों साथ बैठकर कभी चाय पिया करते थे।
आपकी ये पंक्तियां तो सटीक बैठती हैं उस फिल्म के अंतिम दृश्यों पर।
फिल्म का नाम मुझे याद नहीं वरना जरूर बताता।
खूबसूरत खयाल
brilliant Neelesh ! its amazing how you capture love and its pain...reminds me of Shiv Kumar Batalavi !
lovely poem sir.....!!!!!
amazing lines.
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