Friday, June 25, 2010

सोचता हूँ


सोचता हूँ कि काश तुम होते
कम से कम तन्हा ना ये ग़म होते

सोचता हूँ कि वो कैसे टूटा
क्यूँ ना जाना कि रिश्ता कांच का था
गीली मिट्टी की तरहा फिसल गया
दोष मिट्टी का था कि हाथ का था?
काश इतने सवाल ना होते
कुछ तो तकलीफज़दा कम होते

सोचता हूँ कि काश तुम होते
कम से कम तन्हा ना ये ग़म होते

सोचता हूँ कि कैसे होगे तुम
जो मिलूंगा तो क्या कहोगे तुम
जो कहूँगा, कि याद करते हो?
सच कहोगे कि चुप रहोगे तुम?
काश फिर याद के कोहरे होते
काश फिर बातों के मौसम होते

सोचता हूँ कि काश तुम होते
कम से कम तन्हा ना ये ग़म होते

8 comments:

Dankiya said...

bahut khoob Neelesh ji..!!

Dankiya said...

bahut khoob neelesh ji..!!!

Karan said...

Absolutely brilliant. SIGH!

Parag Bhuptani said...

You stole my emotions, Neelesh... and sculpted them into words... kyon ki humbhi kayee aise hi kuch sawaalon mein ji rahein hain...

पश्यंती शुक्ला. said...

अगर गम न होते तो आपकी ये नज्म भी न होती...

Nikhil Srivastava said...

बहुत ही खुबसूरत है सर....
कुछ पंक्तियाँ बढ़ाने का मन कह रहा है.

सोचता हूँ काश तुम होते,
कोहरे के उस पार तुम होते...
पलकों के साथ तुम होते,
दिन-रात काश;
साथ तुम होते.

गम के अँधेरे में साथ तुम होते,
बारिश की मौसम में साथ हम होते...
उसकी बातें सुनने, हंसने
को साथ तुम होते...
वो गिरती, उसके आंसूं,
पोंछने को साथ तुम होते...
सोचता हूँ कि काश तुम होते
कम से कम तन्हा ना ये ग़म होते.

dr mrunalinni said...

सोचता हूँ कि काश तुम होते
कम से कम तन्हा ना ये ग़म होते..kya baat hai..

Anoop Mishra said...

YOU SAY NICE NELESH SIR, KAYAL HO GYE AAPKE

(All photos by the author, except when credit mentioned otherwise)