पाँच दिन। पाँच दुनिया। कितना भाग रहा हूँ मैं।
पहले दिन द्रास में था, कारगिल से दो घंटे की दूरी पर। १९९९ का युद्धक्षेत्र। दूसरे दिन श्रीनगर में। डल झील के किनारे एक खूबसूरत होटल में असली दुनिया से बहुत दूर। तीसरे दिन दिल्ली वापस, उधार की ज़िन्दगी जीने के लिए। दफ्तर गया। फर्जी मुस्कुराया। छेड़। चुगल। डेडलाइन। चौथे दिन बंबई। अपनी फ़िल्म "सिकंदर" के प्रेमिएर में। जलसा तो बहाना था। सच में तो ख़ुद से पीछा छुडाना था। पाँचवे दिन गाड़ी से कसौली, जहाँ अभी हूँ मैं।
जीवन उथल पुथल में है। कहीं मन नहीं लगता। कब से कोई गीत नहीं लिखा। हाँ हाल में बहुत अरसे बाद गीत गाना ज़रूर शुरू किया। ग़म के गीत कमबख्त। कौन लिखते हैं इनको ये कमबख्त लोग? दोस्तों ने मेहेरबानी की है, ज़्यादा सवाल नहीं पूछते। मैं तो कभी सवाल कम, जवाब ज़्यादा, कभी सवाल ख़तम, जवाब आधा। दोस्तों की बातें बीच में काट कर कहीं और की बकने लगता हूँ। खुंदक में दो दिन लगातार बियर पी ली, ज़िन्दगी में पहली बार दो दिन लगातार। वरना अपना उसूल है, "Beer, twice a year ..."
दो दिन से कसौली में शाम को टहलने जाता हूँ। साथ में मेरा जिगरी यार राहुल पंडिता भी ही। धुंध में चलते हैं दोनों भाई। चढाई में थक जाता हूँ तो कमबख्त बैठने नहीं देता ("कमबख्त" बहुत कहने लगा हूँ क्या?) कहता है, नीलेश जी, ऐसे चर्बी कैसे घटेगी? लेकिन इस दिमाग की चर्बी का क्या राहुल मियां? जाने किस किस ग़म का मुलम्मा चढ़ गया है दिमाग में, इसकी कसरत का क्या करें?
रोज हम हांफ हांफ के उस छोटी सी मार्केट पहुँच के काफ़ी पीते हैं। धुंध में ख़ुद को डूबता महसूस करते हैं। शोर करने वाले मंहगी गाड़ियों वाले टूरिस्टों पर हँसते हैं, और उम्मीद करते हैं की जल्दी वीकएंड ख़तम हो, सब जाएँ.
होटल वापस आते आते अँधेरा हो जाता है।
जो पतला सा पहाडी रास्ता कसौली रीजेंसी तक जाता है, उस पर जुगनू भर जाते हैं. घास पर जुगनू, जैसे पड़ी रास्ते का किनारा दिखा रहे हों ताकि हम गिर न जाएँ अँधेरे में. हवा में टहलते जुगनू. ऊपर देखो तो खूबसूरत कुहरा, तनहा मुसाफिरों की तरह खड़े पेड़, हल्का अँधेरा, हल्का उजाला, उसके पीछे तारे और खुला, निश्छल आसमान ... हलकी सी ठंडक, जोर जोर से "ये जीवन है, इस जीवन का, यही है रंग रूप" गाते दो जासूस, और लगता है की यही स्वर्ग है, यहाँ कोई तकलीफ नहीं, यहाँ कोई मेरा दिल नहीं तोडेगा, यहाँ कोई ऊँगली नहीं उठाएगा ... यहीं रह जाता हूँ ...
लेकिन मुझे पता है ... ये दुनिया भी जल्दी ही छोड़नी होगी. फिर किसी और दुनिया का हो जाऊँगा. फिर छोड़ दूंगा उसे भी.
पाँच दिन। पाँच दुनिया। कितना भाग रहा हूँ मैं। किस से भाग रहा हूँ मैं?
चित्र साभार: http://www.flickr.com
9 comments:
पाँच दिन। पाँच दुनिया। कितना भाग रहा हूँ मैं। किस से भाग रहा हूँ मैं?
बहुत अच्छी पोस्ट. अच्छा विषय और दिल को छू लेने वाली लेखन शैली.
बहुत अच्छी पोस्ट
पांच दुनिया को पांच दिनों में
हम यू लांघ जाते हैं,
कमबख्त हम दुनिया में
यूं कैसे खो जाते हैं।
खोने और पाने की जिद में
शहरों में खुद को भूलते
फिर अपनों से बिछड़ते ..
कल रात
हम लौटे अपने शहर......
कितना भाग रहा हूँ मैं..
किस से भाग रहा हूँ मैं?
किस ग़म का मुलम्मा चढ़ा, कौन कम्बख़्त है जो पीछे पड़ा है। चलो कोई रोज़ हवा से खेल लें, इन कंक्रीट के जंगलों में जीना मुश्क़िल बड़ा है...
सर, बेहतरीन लिखा है, स्टाइल भी अच्छा है। और ये तो मुझे कुछ-कुछ अपने एहसास भी लगे।
कसम से ...इन जुगनुओ के लिए तो मै बाकी दुनिया छोड़ सकता हूँ,...
कभी-कभी गम भी कम ही लगते हैं और हम भी हम नहीं लगते. किससे पीछा छुड़ायें, कहां पनाह पायें...जुगनू के रास्ते से दोस्तों के नाम एक पाती, दास्तां लम्बी लेकिन $जरा सी. हम सब भाग ही तो रहे हैं...न जाने किससे, न जाने किसकी ओर...न जाने कब तक...खुशियों का मुलम्मा चढ़ाये गम का मौसम...यह $गम ही तो मरहम है....
नीलेश जी, आपने न जाने कितनी पर्तें खोल दीं. न जाने कितने जख़्मों को हवा लगी आज और न जाने कितनी यादें...
किस ग़म का मुलम्मा चढ़ा है,
कौन कम्बख़्त है जो पीछे पड़ा है।
चलो किसी रोज़ हवा से खेल लें,
इन कंक्रीट के जंगलों में जीना मुश्क़िल बड़ा है...
बूंदों की सोहबत में बहे, बादलों के कंधों पे चढ़े
कुदरत के रंगों में नहाए, चांद के साए में जुगनूओं सा टिमटिमाएं...
कदम बढ़ाओ, इक कारवां खड़ा है.....
apki zindgi ka pahiya to badi teji se ghum raha he... har din ekdam alag hi raste se gujar raha he... sir aapke pas raaste kafi he... par kahbhakt rahgeer to ek hi he na... aisa hi kuch lagta he...
आप तो काफी अच्छी और कसी हिन्दी लिख लेते हैं !
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