दफ्तर में मेरे मित्र ने हंस कर कहा, "कहा था न? ये ब्लॉग व्लोंग बस दस दिन का शौक़ है. हो गए न टाँय टाँय फिस?" असल में वो बंगाली हैं, उन्होंने इस लखनवी अदा में नहीं कहा था, लेकिन हमें लखनवी अदा पसंद है -- और आख़िर ब्लॉग हमारा है -- तो हम उनकी बात इसी तरह रखेंगे.
परदेस से वापस भी आ गया, दफ्तर की आपाधापी में फँस भी गया, लेकिन ब्लॉग पर नया कुछ नया लिख नहीं पाया. रोज़ सोचता था, आज कुछ लिखूंगा, आज तो कुछ लिख ही दूँगा. लेकिन ब्लॉग का कोरा कागज़ जैसे का तैसा. जैसे प्रेमिका जब पत्नी बनने वाली होती है न, तब हम सब मर्दों की यही स्थिति हो जाती है. "याद तो करता हूँ ना बाबा -- नहीं लिख पाया, माफ़ कर दो न, कुछ काम ही ऐसा पड़ गया था ..."
लेकिन मैं चाहता हूँ की ये रिश्ता -- मेरा और मेरे ब्लॉग का रिश्ता -- एक औसत पुरूष का अपनी औसत पत्नी बनने चली प्रेमिका से जो रिश्ता होता है, उससे कुछ बेहतर हो. साथी है मेरा, ये मेरा ब्लॉग. जो अख़बार में नहीं लिख पाटा हूँ, जो दोस्तों से नहीं कह पाटा हूँ, और दो पत्नी से कहना गौण सा लगता है, उसे पट्ट से इसे कह देता हूँ. ये तो मेरा यार है. इसके भी अब कुछ यार बन गए हैं. निठल्ला है ना कमबख्त. खली वक्त होता है, दोस्त बना लेता है. इसके कुछ दोस्त मुझे उलाहना देते हैं -- "नीलेश जी, आप कहाँ हैं? इतने दिनों से कुछ लिखा क्यूँ नहीं?"
क्या लिखता, यार? जब से वापस आया, मन उत्तेजित है. कितनी अलग अलग दिशाओं में क्या क्या हुआ. एक पत्रकार साथी पलाश कुमार अपने परिवार के साथ राजस्थान में गाड़ी से जा रहे थे तभी भयानक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी.
पलाश कभी मेरे मित्र नहीं थे, ईमानदारी से कहूं तो मैं उन्हें कुछ कारणों से कोई ख़ास पसंद भी नहीं करता था ... लेकिन जब एक व्यक्ति जो आपको कम पसंद हो, उसकी मृत्यु हो जाए, तो यकीन करिए अचानक दिल गुनेहगार सा महसूस करने लगता है. मैंने क्यूँ उनसे कभी बात करने की कोशिश नहीं की? वो लखनऊ के ही तो थे ... मैं जब असोसीएटेड प्रेस में था, तो वो प्रतिद्वंदी एजेन्सी ऐऍफ़पी में थे.
कई दिन से सोच रहा हूँ, उन आखरी क्षणों में क्या हुआ होगा? उन दो घंटों में, जब वे जीवित थे और जीवन से जूझ रहे थे, तो उनके मन में क्या विचार कौंध रहे होंगे? उनकी मंहगी गाड़ी का एयर बैग क्यूँ नहीं खुला, जो खुल गया होता तो क्या आज वो परिवार सुरक्षित होता?
पलाश की मौत ने मुझे कहीं गहरा छू लिया. मैं कोई झूठी संवेदना नहीं दिखाना चाहता था, लेकिन उनकी मौत से अपनी जिंदगी की अनिश्चितता ज़्यादा साफ़ दिखने लगी. आईने मैं तीन सफ़ेद बाल ज़्यादा दिखे. लगा, सोचने लगा -- एक किताब और लिख लूँगा तो क्या तीर मार लूँगा? लगा, मैं शायद कॉलेज में लिखे नाटक के पात्र की तरह ही सोचने लगा हूँ ...
"मन कहे कि हाथ उठा कर सब ही ले ले ...
ह्रदय बोले, `ठहर!! कोई देख ना ले!'"
एक कमपसंद सहकर्मी को मौत ने जिंदगी के सबक सिखाये. और कल, जब कई दिनों बाद ये सब भूल कर अपनी दर्जनों अनदेखी ईमेल देखने बैठा, तो अचानक साँस रुक सी गयी. पागलों कि तरह स्क्रीन को देखता रहा.
फेसबुक पर कई ई-मेलों के बीच एक कई दिनों पुरानी "फ्रेंड रिक्वेस्ट" थी:
"पलाश कुमार आपके दोस्त बनना चाहते हैं -- क्या आप उनके दोस्त बनेंगे?"
पुनश्च:
पलाश, हाँ मैं आपका दोस्त बनूँगा.
भगवान आपकी आत्मा को शान्ति दे और आपके परिवार के सदस्यों को जल्द ही ठीक कर दे ...
18 comments:
ओह...बहुत सादगी से बहुत गहरी बात कही आपने। ऐसा हमेशा क्यों होता है कि इंसान के जीते जी हम बहुत सारी दूरियों को पाले रखते हैं और उसके न रहने पर ऐसा महसूस करते हैं जैसा आपने किया। या मैं कर रही हूं इस वक्त। आपकी पोस्ट ने एक दोस्त का क़र्ज़ याद दिला दिया, जो अब इस दुनिया में नहीं है। कई दिन से चाह रही थी उसके बारे में लिखना, आज आपने लिखकर मुझे जगा दिया, जल्दी ही लिखती हूं।
आपके दोस्त् की आत्मा की शान्ति के लिये दुआ करता हूं।
और आपके परिवार से सदस्यों को जल्द ही ठीक कर दे ...
- पेशेवर लिक्खाड़ भी दोहराना भूल जाते हैं । आपका लिखा पसन्द करता हूँ।
कैसा विचित्र सा लग रहा होगा, बिन अपराध किए एक अपराध बोध सा ! जीवन कभी कभी बहुत क्रूर मजाक कर देता है।
आपका लेखन बहुत पसन्द आया।
घुघूती बासूती
Very touchy story.
Am first time, here, but from now visit your blog regularly. I always value the relation between a Blog and it's writer.
Very Interesting Post.
कई बार अपराध नहीं करने के बावजूद अपराधी सा महसूस करते हैं, पर शायद इसी का नाम जिन्दगी है। हम सब ऐसे ही हैं अपने अपने खोलों में सिमटे हुए, इससे बाहर निकलना बहुत आसान नहीं होता ना
apradhbodh na palen kai baar aisa hota hai ki hum n chahte huye bhi apni nazron me apradhi ban jaten hain.
kabhie kabhi kuch baatein adhooree reh jaatee hain...aur uske baad kyun, kya, kab, kaise-- in sawaalon ka koi matlab nahee rehta.
dear anon...jo baatein adhoori reh jati hai vahi to apne peehche sawal chhodti hai. aur sawal hai to unke arth bhee zinda hai. palayan hai aankh band karke sach se bhag jana. Neelesh ne sahas kiya hai ise sweekar karne ka.
ये शायद पसंद और नापसंद से परे किसी की अनुपस्थिति से उपजा खालीपन है . हम चाहते है की हमारे आसपास हमेशा लोग रहे .चाहे वे हमें कम ही क्यूँ न पसंद हो .
Interesting...but do you really think, it makes a difference if you dont know the person...
यह संवेदना ही तो आदमियत की पहचान है।
यदि हम किसी कारण से किसी के लिये कुछ नहीं कर पाते तो भी एक उम्मीद बनी रहती है। लेकिन मौत वह शाश्वत सत्य है जो सभी उम्मीदों पर पूर्णविराम लगा देता है। संबंधों को जी भर कर जी न पाना दु:ख तो देता ही है। आपके दोस्त को हमारी भी श्रद्धांजलि।
extremely poignant.. mortality has always been inexplicable.. it still defeats my understanding.. very absurd; we know life is absurd but we stoically go back to it..
I agree wid u anon...and even though we know it's rude to ignore people or be choosy about which people u wanna talk, chat or hang around with, we still go ahead and do dat... Similarly we never give importance to such things in our daily life...I guess it happens with all
ये जीते जिन्दगी का सच है....आप इससे सबके साथ तो झुठला सकते हैं...अपने आप से कभी नही.. कभी नही...ये फेसबुक के मेल की तरह है कोई आपसे दोस्ती करना चाहता है और आपका अहम्.... बनाये रखे जिन्दगी में यह सोच.... अपने पास भी और अपने बच्चो को भी दे.... दिया रौशनी देता रहेगा
नीलेश जी। मैं बहसबाजी में विश्वास नहीं करता हूं, बस यही कहना चाहता हूं कि सच में अभिनव है।
नीलेश अगर किसी का नाम हो सकता है तो ये उसी ने लिखा है। दोस्त तुम भले ही एक पत्रकार की भूमिका का निर्वाह करो लेकिन मिजाज की जात से आपका एक बेहद भावुक, सवेंदनशील इंसान का रूख लोगो के सामने नजर आता है। दिल को छू लेने वाले अहसास की अभिव्यक्ति इस लेख में रही। मैं बहुत अच्छे से जानता हूं तुम बेकार ही भाषणबाजी वाले वक्तव्यों में समय खपा देते हो लेकिन असली चीज कभी कभार ही सामने लाते हो। कुछ और सवेंदनशील व सूक्ष्म विषयों को भी जगह दो। और आप कर सकते हो तो क्यों नही।
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