ये है मेरी दो क्षण की दो मैगी नूडल टिप्पणियां.
नम्बर एक. मुझे लगता है रक्षा व सुरक्षा मामलों को कवर कर रहे सारे पत्रकारों को गुप्तचर बन जाना चाहिए.
नम्बर दो. मुझे लगता है कि सारे गुप्तचर ब्यूरो वगैरह के मित्रों को पत्रकार बन जाना चाहिए.
जैसा कि रिसर्च एंड अनालिसिस विंग के एक प्रमुख ने एक बार चलते चलते मुझसे कहा था -- "मैं और आप सच कहूँ तो एक ही काम करते हैं. बस मुझे अपने काम करने के कई तरीकों पर गर्व नहीं है."
कुछ पत्रकार साथियों की अदभुत प्रतिभा को मैं अक्सर देखता हूँ. भगवान न करे कोई आतंकी घटना हो जाए, चाहे सुबह के सात बजे हों, झट से पतलून पहन कर माइक के पीछे लपक कर खड़े हो जाएंगे, और घटना के दस मिनट के अन्दर अपना फ़ैसला सुना देंगे. बम्बई हो या दिल्ली या अजमेर या जम्मू या जयपुर. गहरी नींद में अब ये शब्द कह सकते हैं वो.
"इसमें लश्कर का हाथ है! इसमें सिमी का हाथ है! इसमें हूजी का हाथ है!"
(मेरे मन में बचपन का सुना माँ की झुंझलाहट गूँज गई: " बेटा दरवाज़े पे देखो कौन है, हमारा सूजी का हाथ है!"
हाथ हूजी का हो या सूजी का, हलवा वही पकना है. पत्रकार साथी आज कल नींद में भी अपना पी-टू-सी (यही कहते हैं न?) या समाचार विश्लेषण कर सकते हैं. इस पर हूजी कि छाप है. कोई नया मॉड्यूल है हिजबुल मुजाहिदीन का. महिला आतंकवादी. अमा मियां कोई ऐसी वैसी बात है क्या? सूत्रों ने बताया है. कश्मीर में घुसपैठ बढ़ रही है. पाकिस्तान के खतरनाक मनसूबे हैं. इन्टेलीजेन्स फेलियर है.
हो सकता है कि ये सब सही हो. लेकिन सुरक्षा मामलो को कवर कर रहे अधिकांश साथी इन सुरक्षा अधिकारियों के प्रवक्ता क्यों बन गए हैं? क्यों पहला धमाका होते ही ये प्रहसन शुरू हो जाता है? आपको धमाका होते ही दस मिनट में कैसे पता चल जाता है कि इसमें हूजी का हाथ है या लश्कर का?
दर्शक उल्लू है क्या?
हर तीसरे दिन आप सुनेंगे, कश्मीर में घुसपैठ बढ़ गयी है या घट गयी है. क्या आपको पता है कि कश्मीर का ये सीमा रेखा का सेंसेक्स कैसे चलता है? दिल्ली के नार्थ ब्लाक में एक मेज़ के चारों ओर बैठ कर छः सात अधिकारी "इन्टेलीजेंट गेस" (बुद्धिमत्ता पूर्ण अटकलें) लगाते हैं. और थोडी मोल भाव होती है. फिर फ़ैसला हो जाता है. फिर ब्रेकिंग न्यूज़ हो जाती है. इस साल बहत्तर नहीं, सतत्तर घुसपैठी कश्मीर में चोरी से आए. साथीगन हांफ हांफ के बताने लग जाते हैं लाइव न्यूज़ पर.
अरे नार्थ ब्लाक में गणित कर रहे सज्जनों! इत्ता पता है तो पकड़ क्यों नहीं लेते भइया? बेकार में इत्ता टी वी देखना पड़ता है ...
10 comments:
good one. better annalsys. it is like a match-fixing. the sad part is that it is happening in every feild.
सही, बिलकुल सही।
Nice piece. HuJI, Suji and spices. You are a photographer the why this templete, White fonts over black back... any reason. I think u should change this, if u feel am i right!! Show some color... :)
दोस्त,
टीवी बीमार हो गया है। इसका एक ही काम है दिल्ली में रोज़गार गारंटी योजना के तहत कुछ बेरोज़गारों को पत्रकार कार्ड देना।
ल्यूटियन ने नई दिल्ली वायसरायों के लिए बनाई लेकिन आजादी के बाद नेताओं और पत्रकारों ने कब्जा कर लिया। नेताओं को घर मिला और पत्रकारों को नहीं। लिहाज़ा पत्रकारों ने ल्यूटियन दिल्ली में घूमते रहने का फैसला किया। इसी ज़ोन की पत्रकारिता करने वाले दिल्ली स्थित राष्ट्रीय मीडिया में संपादक हुए। ज़्यादा हो गए तो एक मेन संपादक बना दूसरा राजनीतिक संपादक।
इसी में एक दूसरा वर्ग है जो आगे चलकर इंवेस्टिगटिव संपादक बनता है। यह ल्यूटियन पत्रकारिता का बचा खुचा अंश है। आंतकवादी घटनाओं के प्रसार लेकिन सूचनाओं के केंद्रीकरण के कारण ऐसे पत्रकारों की अहमियत बढ़ी। फीचर वालों को ल्यूटियन ज़ोन में कुछ नहीं मिला तो गांवों का रूख कर गए। स्माल टाउन की अवधारणा पत्रकारों की इसी जमात की देन है। मैं कई बार कहता हूं अशोक रोड( बीजेपी दफ्तर) और अकबर रोड(कांग्रेस दफ्तर) से दो बाइट लेकर विजय चौक के बीच में खड़े होकर पीटूसी कर दीजिए, स्टोरी बन जाएगी। बयानधर्मी स्टोरी जनकल्याण के लिए ही तो होती है।
बहरहाल संघीय ढांचे और गठबंधन की मजबूरी के कारण गृहमंत्रालय की भूमिका कम हुई है। लिहाज़ा इसके अफसर सूत्र बन गए हैं। इनके संपर्क में आए पत्रकार हूजी सूजी का हलवा बनाने लगे। सबसे पहले यही खबर देते हैं कि धमाके में आर डी एक्स का इस्तमाल हुआ। शिवकाशी से लाया गया बारूद नहीं था। फटे हुए और बचे हुए बम के भीतर अणु से लेकर परमाणु तक की जानकारी यही पत्रकार देते हैं।
आप अखबार वाले इनसे जलते हैं। इस श्रेणी के पत्रकार आपके भीतर भी हैं। जब आप मुख्य पृष्ठ पर द्विखंडीत यानी टू-पीस बिकनी वाली लड़की का फोटो छाप देते हैं तब कुछ नहीं। ख़ैर मीडिया को लेकर पत्रकारों को इमोशनल नहीं होना चाहिए।
सूत्र पत्रकारिता प्रिंट की देन है। प्रिंट से आए लोगों ने जब टीवी में इसके लिए धक्का मुक्की की तब से यह सूत्र के नाम पर गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट आम होने लगी है।
वैसे आइये हम सब मिल कर घोर निराशा के इस दौर में तमाम सूत्रों के प्रति सम्मान व्यक्त करें जिनके भरोसे लोकतंत्र का चौथा खंभा खड़ा हुआ है।
सूत्र तुम बढ़े चलो। वीर तुम बढ़े
मूल्यों की भग्न इमारत -- उसके खण्डहरों में -- पत्रकार अपनी फेफड़ाफाड़ बीन बजा-बजा कर नागिन डांस कर रहे हैं . असली नागिन के कान नहीं हैं . वह बिना सुने फन हिला रही है . परछाईं पर फन मार रही है .
wah. sahi farmaya hai, vaise hamare yanha bhi(print main)aise log hain jo pahle din hi lag jate hai internet par huji ki workingstyle dekh kar ki kaise hua visfot....baharhaaal aap bahut baidya laga ....
abhishek
बहुत बढिया आर्टिकल है।जयपुर व्लास्ट मेँ वहाँ था। वहां उपस्थित पॼकार तो व्लास्ट के बाद से ही हूजी के हाथ होने का सेर्टिफिकेट दे चुके थे।दूसरे से आगे आने की होड में नये नये ब्रेकिंग इवेंटस अपने चैनलों को दे रहे थे। मेरा एक साथी लाइव इनपुट में स्थानिय अखबार की कतरन को लेकर हाट-स्वीच के लिए खडा था और दर्शकों को शायद ये जता रहा था कि आतंकवादी संगठन का कथित इमेल सबसे पहले मेरे ही चैनल पर आया था। बगल में खडे दूसरे प्रमुख चैनल के प्रमुख संवाददाता भी यही दावा करते नजर आ रहे थे। निलेश भाइ दोनों मजबूर हैँ चैनल के कर्ता-धर्ता और बेचारा फिल्ड में काम कर रहा रिपोर्टेर।
निलेष जी नमस्कार
पत्रिकारिता की पहली कक्षा में हूँ। आप और रवीश जी जैसे अनुभवी लोगों से कुछ सिखने की कोशिश में लगातार लगा रहता हूँ। लेकिन आज आपके लेख हुजी, सूजी और भावुक पत्रकार पर रवीश जी की राय से इस पेशे के बारे में सोचने को मजबूर हो गया हूँ कि क्या मुझे इसी लाइन बने रहना चाहिए। यदि आप जैसे हमारे मार्गदर्शक ही इन परेशानियों से घबराएँगे तो हम जैसे बच्चों का क्या होगा?
फिलहाल मैं आगरा में एक हिन्दी के समाचार पत्र में kaam करता हूँ। रहने वाला दिल्ली का ही हूँ। इसलिए दिल्ली में पत्रिकारिता (और वो भी टीवी की) करना चाहता हूँ। आपकी मेरे लिए क्या सलाह है। आप की सलाह का इंतजार रहेगा क्यूंकि मेरे भविष्य की बागडोर आपके हाथ है।
I really loved the title of this post... achcha for the "suji ke haath" even my mum used to say that many times...:D...loved it... keep writing such stuff...
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