बड़े दिनों के तकल्लुफ़ और शिष्ट टिप्पणियों के बाद आज पत्नी ने बेहद उकता कर कह ही डाला: "तुम एकदम भयानक लग रहे हो, आख़िर इतने दिन से बाल क्यों नहीं कटवा रहे हो?"
उनकी बात ठीक थी, लेकिन मेरी भी अपनी मजबूरियां थीं.
छोटे शहर का आदमी हूँ. दिल्ली में पन्द्रह साल बीत गए, लेकिन माफ़ कीजियेगा, कुछ चीजों से अभी भी एडजस्ट नहीं कर पाया हूँ. मसलन: बाल कटवाने के एक सौ सत्तर रुपये? और तीस रुपये की टिप? मियां सोने का उस्तरा है क्या और हीरे जड़ी कैंची?
और उसके ऊपर से आज गया तो कमबख्त मेज़ के पीछे बैठा एक आदमी बोला, "सर अपौइंटमेंट है क्या?" अमां तुम क्या समझ रहे हो, किसी बेईमान अधिकारी के चपरासी हो क्या? मन किया की ... खैर छोडिये.
बात की जड़ में ये मामला है. मैं दिल्ली के जिस मोहल्ले (कैलाश कालोनी) में रहता हूँ, वहां बाज़ार में सिर्फ़ एक अदद बाल कटाने का इम्पोरियम है. जी हाँ, इम्पोरियम. देखिये नाई की दूकान तो उसे मैं कह नहीं सकता, वो लोग बुरा मान जाएंगे. दो मंजिला मामला है, ऊपर महिलाएं संवारती हैं, नीचे मर्द संवारते हैं. पहली बार गया था तो घबरा गया. लगा किसी पुरूष-प्रेमी शहेंशाह के मरदाना हरम् में आ गया.
कोई मर्द बेशर्मी से जांघ तक पतलून उठाए बैठा था, पानी के टब में मदमस्त हाथी के अंदाज़ में टांगें हिलाता हुआ. कोई बेसुध लेटा था पानी में अपने बाल डुबोए हुए. कोई अपने नाखून कटवा रहा था. कोई अपने हाथ किसी कारीगर के हाथ में दे के अदा से बैठा था, जैसे बस मेंहदी अब लगी, तब लगी.
मुझे घबराहट हुई. मैंने किसी तरह सर झुका कर नाई भाईसाहब से वही चार शब्द कहे जो बचपन से कहता आया हूँ: "भइया, छोटे कर दीजिये!". भइया ने कैंची उस्तरा फिरा तो दिया, लेकिन जब पैसे देने का वक्त आया तो बोले एक सौ सत्तर रुपये. भइया एक सौ सत्तर में तो कॉलेज के दिनों तक लखनऊ से काठगोदाम का रेल का सेकंड क्लास टिकेट आता था.
ऊपर से इस जगह का नाम भी बड़ा पुरूष विरोधी था. Madonna!
उस दिन से मैंने सोचा, की मैं यहाँ अब नहीं आऊँगा. लेकिन बालों के खुदा ने साथ न दिया. बहुत ढूँढा, कहीं भी कोई और बाल काटने का इम्पोरियम या खोमचा न मिला.
इस बीच लखनऊ जाने का कोई मुहूर्त बना. सोचा लखनऊ तो जा ही रहे हैं, गोमती नगर में घर के पीछे जीवन प्लाजा में बाल कटवा लेंगे तीस रुपैय्या में. न हो सका. आलस अधिक था.
दिल्ली चले आए. फिर वही जद्दोजहद. बाल हैं की रोज़ बढ़ते ही जाएं मंहगाई की तरह.
इन्ही हालात में पत्नी ने जो रही सही कसर थी, वो भी पूरी कर दी.
इन्ही हालात में पत्नी ने जो रही सही कसर थी, वो भी पूरी कर दी.
तो मैं आज सुबह खुंदक में आ गया. गाड़ी ले कर निकला. पूरे इलाके का चक्कर मार डाला. नहीं मिला नाई. आखिरकार पत्नी के छोटे भाई को फ़ोन लगाया. नितिन भाई से मेरी इस मुद्दे पर पहले भी बात हो चुकी थी. उन्होंने एक नाई का पता बताया. दूकान का नाम सरल था: The Barber's Shop".
वो आधे घंटे मेरे इस महीने के सबसे सुंदर आधे घंटों में से थे. बाहर निकलते ही जीवन का एक बड़ा फ़ैसला किया.
Madonna बहेन, अब अपोइंटमेंट तुम को माँगना होगा, मैं तो आने से रहा ...
चित्र साभार (Photos courtsey): http://www.gutenberg.org/ व http://www.brocknroll.wordpress.com/
3 comments:
'बाल कटवाने के एक सौ सत्तर रुपये? और तीस रुपये की टिप?' अरे बाबा रे - खैरियत है कि मैं अब भी छोटे शहर में रहता हूं। घर आ कर बाल काट जाता है। २० रुपये दो तो खुशी खुशी लेता है।
आप तो बॉलीवुड के लिये गीत लिख रहे हैं हिन्दी में और भी लिखिये।
नीलेश,
आपकी पोस्ट ने अमेरिकी देसियों की बहुत कम चर्चित पर बड़ी आम तकलीफ़ बयान कर दी है. 17 डॉलर कटाई और 3 डॉलर टिप के बाद देश बहुत याद आता है.
आपको हिंदी में ब्लॉगिंग करते देख बहुत अच्छा लगा. आपके कुछ गाने मुझे बहुत अच्छे लगे हैं और सोचता रहा हूँ कि आपको इन दिनों में और ज़्यादा लिखने का मौका क्यों नहीं मिला. लिखते रहियेगा.
"कहने वाले कहते हैं,दो ही मिसरों के दरम्यां क्या क्या...." आपका लिखा अपनी सी बात लगती है,क्योकि कहीं न कहीं मेरे भी दिल में मेरा छोटा सा शहर रहता है...
Post a Comment