Wednesday, August 26, 2009

जुगनुओं के शहर से एक और ख़त



इक अजनबी है अजनबी शहर को आ गया
होटल जो लौटा तो लगा कि घर को आ गया

तन्हाई से मिलना हुआ कितने बरस के बाद
कमबख्त को करते रहे कितना तरस के याद
कितने ये चेहरे ओढ़ के दिल्ली में खो गयी
ख़त लिक्खे, पुकारा किये, खामोश हो गयी
इक छोटे से शहर में है शरमा के फिर मिली
"कैसे हो अजनबी?" है ये फरमा के फिर मिली
मैं क्या बताऊँ तुमको कि मैं कैसा हूँ क्या हूँ
तुम छोड़ गयीं मुझको मैं वहीँ पे खड़ा हूँ
इक याद का टुकडा मेरे घर भूल आई थीं
मैं आज ढूँढता उसी मंज़र को आ गया

होटल जो लौटा तो लगा कि घर को आ गया ...







अब लगता है रहता हूँ यहाँ कितने बरस से
अब रोज़ मैं तय करता हूँ जुगनू भरे रस्ते
हलकी सी सर्द है हवा, अक्सर निकलता हूँ
मैं धुंध का कम्बल लपेटे हाथ मलता हूँ
गीली सी कुर्सियों पे रोज़ चाय पीता हूँ
इक याद शुगर फ्री है, उसे घोल लेता हूँ
हैं चीनी भरी यादें भी, पर पी न पाऊंगा
इतनी मिठास ना दो मुझे, जी न पाऊंगा

तन्हाई भरे शहरों में उकता सा गया हूँ
खुद से ही ऊब कर मैं इस सफ़र को आ गया

होटल जो लौटा तो लगा कि घर को आ गया ...

चित्र साभार : इन्टरनेट (http://www.thelatestone.com/, http://www.vacationhomerentals.com/, http://www.makemytrip.com/)

(All photos by the author, except when credit mentioned otherwise)