Tuesday, March 26, 2013

इस होली मैं सबका मुंह काला कर रहा हूँ

प्यारे श्री शाह रुख खान जी,
हमारा नाम सड़क छाप है और हम एक टुटपुंजिया टाइप निठल्ले राईटर हैं।  गाँव शहर भटकते हैं और बेमतलब की बकबक करते हैं। जहाँ बन पड़े किसी ढाबे पे बैठ के इधर की उधर करते हैं। पिछले दिनों हम होली की शौपिंग करने जेब में सौ रुपैय्ये ले कर टहलते हुए मार्किट गए हुए थे कि देखा कि कोई चीज़ है जो धड़ाधड़ बिक रही है।
शाह जी, आप तो जानते ही हैं, और शायद ना भी जानते हों, कि हम बड़े लालची और मुफतखोर टाइप के आदमी हैं। हमें मुफ्त की, सस्ती वाली, एक के साथ एक फ्री मिलने वाली, हर वस्तु पसंद है। हम तो एक बार दस बाल्टियाँ खरीद लाये थे क्यूंकि उनके साथ दस बाल्टियाँ और मुफ्त मिल गयी थीं। ये अलग बात है कि हम उसके कई दिन बाद तक नहा नहीं पाए थे क्यूंकि बाथरूम में बीस बाल्टियाँ किसी तरह अटाने के बाद हमारे पर्सनल नहाने के लिए कोई जगह ही नहीं बची थी।  खैर कहने का मतलब ये है कि हम भी लालच के चक्कर में दूकान में बाहें चढ़ा के, कुहनी भांज के, सबसे अन्दर पहुँच गए।
अन्दर क्या देखते हैं कि आप गोरे होने की क्रीम बेच रहे हैं। आप क्रीम के डब्बे पर छाये हुए हैं और सब तरफ त्राहि त्राहि मची हुई है कि किसी तरह गोरेपन की क्रीम मिल जाए और वो सब उसको चुपड़ चुपड़ के अपने कालेपन को त्याग के गोरेपन यानि सुन्दरता को प्राप्त हो जाएँ। 
उधर जॉन अब्राहम जी, कटरीना कैफ जी, दीपिका पादुकोन जी, सोनम कपूर जी भी यही गोरेपन का अमृत डिबिया में बंद कर के बाँट रहे हैं। हम एक दिन पान की दूकान पे खड़े थे कि हमने सोचा इतने बड़े बड़े लोग अगर इतना बड़ा बीड़ा उठा रहे हैं तो हम अपना पान का बीड़ा उठाकर इनके ही साथ चल दें।
किन्तु शाह जी, आप तो जानते ही हैं -- और शायद न भी जानते हों -- कि हम थोडा ढीठ टाइप हैं।
अगले दिन हम होली के शुभ अवसर पर ट्रेन में रिज़र्वेशन न मिल पाने के कारण गुसलखाने के बाहर हिलते डुलते, लोगों का लात कुहनी खाते चले आ ही रहे थे कि लगभग संडीला स्टेशन से डेढ़ किलोमीटर दूर -- अरे चलिए दो किलोमीटर होगा -- हमें आत्मज्ञान प्राप्त हुआ। आत्मज्ञान यूँ कि इतने बड़े बड़े लोग -- जो अमीर भी हैं, खूबसूरत भी हैं, अकलमंद भी हैं, चुस्त भी हैं, तंदुरुस्त भी हैं -- ये लोग भेड़ चाल में चल के भेड़ के कलर के पीछे पागल हुए जा रहे हैं, ये क्या भेड़ का प्रोमोशन कर रहे हैं या भेड़ियों का?
क्या पूछ रहे हैं? भेड़िया कौन? अरे भेड़िया वो जो सांवली महिला को देख के मन के नाखून निकाल के कहे, "कितनी  काली बदसूरत लड़की!"
जब तक ट्रेन संडीला स्टेशन से निकली, और जब तक दो बार चैन पुलिंग हुई और आखिरकार लोग पूड़ी सब्जी निकाल के सेटल हो गए, हमने एक बहुत बड़ा फैसला ले लिया था।
शाह जी, हमने आपके खिलाफ विद्रोह करने का फैसला ले लिया था।
हमने जॉन अब्राहम जी, कटरीना कैफ जी, दीपिका पादुकोन जी और सोनम कपूर जी के खिलाफ विद्रोह का फैसला ले लिया था।
हम जब अपने गाँव पहुंचे तो हमने रणनीति बनानी शुरू की। हम गाँव की पुलिया पे पहुंचे और वहां बैठ गए। थोड़ी देर में गाँव के सारे निकम्मे लड़के धीरे धीरे वहां इकठ्ठा हो गए। लड़कियां वहां से गुज़रती रहीं और वो सीटियाबाजी करते रहे। कभी कहते "अरे गोरी, इधर भी देख लो!" कभी कहते "ओये कल्लू तेरी वाली आ गयी!" कभी कहते "कल्लो तुझे कहाँ मिलेगा कोई!"
थोड़ी देर बाद हमने लड़कों को एक ऑफर दिया। और उन्होंने ऑफर क़ुबूल कर लिया। लफंगे थे आखिर। 
होली आई और गुज़र गयी। लोगों ने उबटन से रंग छुड़ा लिया, नहा लिया, नए कपड़े पहन लिए। दोपहर बाद सारे गाँव ने एक अजीब नज़ारा देखा। दस लड़के साफ़ कपडे पहने, लेकिन चेहरे पर काला रंग रंग के घूम रहे थे। लोग उन्हें घूर रहे थे, हंस रहे थे, लेकिन वो लड़के मजबूरन वैसे ही चले जा रहे थे।
एक दिन बीता, फिर दो, फिर तीन, फिर एक हफ्ता बीत गया। सारे लड़कों के चेहरे पे काला रंग चढ़ा रहा। कोई कहता "ओये कल्लू! कहाँ जा रहा है!" तो कोई कहता "अरे रात में बाहर मत निकलना! दिखेगा नहीं!" 
एक हफ्ते बाद उन्हें ऑफर के हिसाब से हमने एक एक हज़ार रुपये दे दिए। शाह जी, हमने अपनी एक महीने की तनख्वाह आपके खिलाफ अपने विद्रोह पे कुर्बान कर दी थी। पर हम जीत गए। उस दिन के बाद वो शर्मिंदा लड़के कभी उस पुलिया पे नहीं बैठे। कभी किसी लड़की को छेड़ा नहीं, किसी को "ओये कल्लो!" कह के भी नहीं पुकारा। शायद वो जान गए थे कि तानों के तीर कितना गहरा चुभते हैं।
शाह जी, आप तो इतने बढ़िया आदमी हो, इतनी अच्छी अच्छी बातें करते हो, लाखों लोग आप जैसा बनना चाहते हैं, आप जो करें वो करना चाहते हैं, आपको अपने पॉवर का अंदाज़ा होगा ना? आप ज़िन्दगी बदल सकते हैं। आपके नाम का टिकट छप सकता है। आप दिन को अगर रात कहें तो बाई गॉड सब रात कहेंगे। 
तो क्यूँ दुनिया को आप ये बताते हो शाह जी, कि उन्हें गोरा होना है तो क्रीम लगानी चाहिए?
काश आप और जॉन अब्राहम जी, कटरीना कैफ जी, दीपिका पादुकोन जी और सोनम कपूर जी टीवी पे आके कहते, "ये सांवलेपन की क्रीम है, इसे लगा के आप सुन्दर हो जाएँगे।" 
तब हम कहते श्री शाह रुख खान जी, कि आपने दुनिया बदल दी। तब हम कहते कि टीवी पे सिर्फ ये कहने से नहीं होता है कि हीरोइन का नाम मेरे पहले आएगा, बल्कि औरतों के गोरे काले के भेद की दीवार में भेद करने से होता है।
तब हम कहते, शाह जी, कि हम आपके फैन हो गए। 

आपका 
सड़क छाप 

Thursday, March 21, 2013

सड़क छाप: महिलाओं! हम अब से पुरुष दिवस मनाएंगे


चूंकि मैं आज़ाद भारत का आज़ाद नागरिक हूँ, और अपने फैसले खुद लेने का अधिकार मुझे मेरे राष्ट्र के संविधान, मेरी कानून व्यवस्था और मेरे मम्मी पापा ने दिया है,  इसलिए मैं ये फैसला सुनाना चाहता हूँ कि अब से हम महिला दिवस की टक्कर में एक पुरुष दिवस मनाएंगे।
मैं पूछता हूँ कि ये हक़ महिलाओं को किसने दिया कि अपना डे खुद डिक्लेअर कर लें? हद होती है!
मैं इसकी भर्त्सना करता हूँ, निंदा करता हूँ, इसके खिलाफ एक प्रस्ताव पारित करता हूँ और वो सारी भारी भरकम शब्दों वाली दफ़्तरी चीज़ें करता हूँ जो हम टीवी न्यूज़ पर सुनते हैं पर समझ नहीं आतीं।
महिलाओं के इस फैसले की भर्त्सना करने के बाद अब हम पुरुष दिवस मनाने की तय्यारी शुरू करते हैं।
हम इस अवसर पर एक भव्य समारोह करेंगे और ऐसे पुरुषों का आदर करेंगे जिन्होंने पुरुष होने का धर्म बखूबी निभाया हो। इस कसौटी पर खरे उतरने के लिए उन्हें कुछ शर्तें पूरी करनी होनी। मुझे यकीन है कि भारत में गली गली में ऐसे पुरुष मिल जायेंगे जो ये शर्तें पूरी करते हों, और हमारे पास करोड़ों आवेदन आयेंगे, लेकिन फिर भी शर्तें गिना देता हूँ: 
1. पहली ये कि उन्हें चाय बनानी आती हो और वे अपनी माताजी, बहन अथवा पत्नी को चाय बना के पिलाते हों। अब मैं जानता हूँ हम मर्द धूर्त होते हैं और इस काम से बचने के लिए बहाने या शॉर्ट कट ढून्ढ लेंगे। इसलिए इस शर्त के अन्दर भी एक शर्त ये बनाई जा रही है कि चाय बाक़ायदा गैस पर चढ़ा कर, पानी-पत्ती-अदरक-दूध सब दाल के, उबाल के, छान के, बनाई गयी हो। टी बैग अथवा बटन दबा कर किसी यन्त्र की सहायता से बनाई गयी चाय मान्य नहीं होगी।
2. बेहतर तो यह रहेगा कि वे गालियाँ न देते हों, लेकिन अगर ये बचपन की गन्दी आदत जाने को तैयार ही न हो, तो वे कम से कम गालियों  में महिलाओं को न घसीटते हों। और गालियाँ अगर दें तो आईने के सामने ही दें, किसी और पर सार्वजानिक रूप से ये प्रयोग करना हमें अधिक ठीक नहीं लगता। पता नहीं आप लोगों ने नोटिस किया होगा कि नहीं, कि लगभग भारत की सारी भाषाओँ में महिलाओं के जिक्र के बिना गालियाँ जैसे अधूरी ही लगती हैं ... हम कहते हैं महिलाएं महत्वपूर्ण हैं, बहुत महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इतनी भी नहीं। ठीक है? 
3. अगर आप पिता हैं तो बेटे और बेटी में भेद न करते हों। ये नहीं कि बेटे को नए जूते दिला दिए और बेटी से कह दिया कि भैया को स्पोर्ट्स डे पर ज़रुरत है, तुम्हें बाद में दिला देँगे। बेटा तो डाक्टरी और इंजीनियरी करने के लायक समझा जाता है और बेटी किसी छोटी मोटी नौकरी के।
4. आप सार्वजनिक स्थानों में महिलाओं को घूरते न हों और छींटाकशी न करते हों। आप में से जो इंग्लिस माध्यम के लोग छींटाकशी करते होंगे किन्तु इस शब्द का मतलब नहीं जानते होंगे, उन्हें बता दूं कि इस का मतलब होता है लड़कियां छेड़ना। चूंकि हमारे फिल्मी गानों, टीवी सीरियलों और फिल्मों में इस क्रिया अथवा हरकत को काफी अच्छी चीज़ बताया जाता है, इसलिए शायद आपको लगता होगा कि सीटियाबाजी के लिए इंडिया में कोई इनाम मुक़र्रर है। लेकिन ऐसा है नहीं। अगर आप लड़कों पे सीटियाबाजी करना चाहते हैं तो हम फिर भी आपको कंसिडर कर सकते हैं।
5. ऐसा न करते हों कि परिवार की महिलाएं परिवार के पुरुषों के बाद खाना खाएं। ऐसा करने से आप पुरुष दिवस पर मैडल पाने से वंचित रह जायेंगे।
6. अगर आपने कभी अपनी पत्नी पे हाथ उठाया हो ता तो बाई गॉड आप गए काम से। आप को इनाम मिलना तो दूर आपको ब्लैकलिस्ट कर दिया जाएगा और आप राशन कार्ड लेने तक के लायक नहीं माने जायेंगे। लेकिन मैं जनता हूँ आप ऐसा कभी नहीं करेंगे, कभी नहीं करते होंगे।
मैं जानता हूँ कि बड़ी आसान शर्तें हैं। आप में से लाखों, करोड़ों पुरुष इन शर्तों पर खरे उतरेंगे और एक बड़ा ही दिलचस्प मुकाबला होने जा रहा है! अब देखिएगा, ये महिला दिवस तो धरा का धरा रह जाएगा। हमारा पुरुष दिवस इतना लोकप्रिय हो जाएगा कि टीवी चैनेल वाले दौड़े चले आयेंगे हमारे पीछे सरपट सरपट! 
पुरुष दिवस के इस पुरस्कार वितरण समारोह को और भी रोमांचक बनाने के लिए हम एक बड़ा अनूठा प्रयोग करेंगे -- हम महिलाओं की जूरी बनायेंगे! आखिर ये महिलाएं भी तो देखें कि कितने काबिल लोग भरे पड़े हैं हम पुरुषों में! हद है, बेकार में ये हमें जब देखो विलेन बताती रहती हैं! जैसे हम मेले वाला वो बबुआ हों जिसे जो देखो घूँसा जमा के चला जाता है!
तो भाइयों जल्दी जल्दी भेजिए अपने फॉर्म! मुझे यकीन है कि आप सारी शर्तें पूरी करते हैं! अपनी एक तस्वीर भी साथ भेजिएगा ताकि अख़बार में बढ़िया चकाचक छप सके! मैं जानता हूँ कि आप महिलाओं की इज्ज़त करते हैं, आप कभी गड़बड़ शड़बड़ गालियाँ नहीं बकते हैं, आप कभी महिलाओं को बुरी नज़र से नहीं देखते हैं! मैं जानता हूँ कि ये आपके विरुद्ध चलाया गया झूठे आरोपों का पुलिंदा एक पल में ढेर हो जाएगा जब पुरुष दिवस के अवसर पर हम पुरुष गर्व के साथ अपने भले होने का सबूत देंगे!
अरे जल्दी कीजिये भाई, आवेदन भरने की सीमा समाप्त होने वाली है!
... अरे मैंने कहा जल्दी भेजिए अपने नाम, आप सब ही तो ये शर्तें पूरी करते होंगे?
... अरे दोस्तों जल्दी कीजिये!
दोस्तों! मेरे साथी पुरुषो! क्या हमारी नाम कट जाएगी इन महिलाओं के सामने? क्या आप पुरुष दिवस के लिए आने वाले अतिथियों के लिए आर्डर किया गया बिस्कुट चाय समोसा बेकार जाएगा?
अरे क्या कोई भी पुरुष हिंदुस्तान में ये शर्तें पूरी नहीं करता????

... दोस्तों ... चूंकि मैं आज़ाद भारत का आज़ाद नागरिक हूँ, और अपने फैसले खुद लेने का अधिकार मुझे मेरे राष्ट्र के संविधान, मेरी कानून व्यवस्था और मेरे मम्मी पापा ने दिया है,  इसलिए मैं ये फैसला सुनाना चाहता हूँ कि मेरे पहले फैसले को निरस्त किया जाता है। 

पुरुष दिवस कैंसिल।
 
आपका 
सड़क छाप 
www.gaonconnection.com 

Saturday, August 18, 2012

गुलज़ार साहब के जन्मदिन पर


शाम का टुकड़ा
धूप  का कोना
सिरा नींद का
मन का बिछौना
उखड़ी उखड़ी सी दोपहरें
शाम लगाये  आँख  पे पहरे
रात महल में ख्वाब न ठहरे
आज का दिन बेज़ार लिखा है
लेकिन तेरी ग़ज़ल के ज़ेवर
पहन के बदले रात के तेवर
तन्हाई भी अब महफ़िल है
लम्हों पर गुलज़ार लिखा है

 जन्मदिन मुबारक, गुलज़ार साहब!

-- आपका एकलव्य, नीलेश 

Sunday, April 22, 2012

हमारे मन के कमरे में




हमारे मन के कमरे में,
यूँ इक मंज़र अनोखा हो
हवा की तेज़ लहरें हों, 
कहीं पानी का झोंका हो 
और इक लम्हे की कश्ती पे, 
कुछ इस तरहा तू बैठी हो 
वही मेरी हकीकत हो, 
वही नज़रों का धोखा हो 
हमारे मन के कमरे में, 
यूँ इक मंज़र अनोखा हो ...

Sunday, March 18, 2012

नाउम्मीदी से कहा है मैंने ...



नाउम्मीदी से कहा है मैंने
मेरे घर अबके बरस ना आना
सौतेली बहन तेरी है उम्मीद
उसको तू मेरा पता दे जाना
तुझसे भी यारी रही है मेरी
और उसके भी संग बिताये दिन
मगर इस जनवरी है ये सोचा
कि हैं इस बार उसके आये दिन

नाउम्मीदी से कहा है मैंने
कैसे तू ढूँढती है सबका पता?
क्यूँ दरारें हैं दिल की रेतों पे
कैसा भूगोल है ये, मुझको बता?
कैसे तू ढूँढती है दरवाज़े
कैसे गलियों के नाम याद तुझे?
कुछ और सपने पूरे कर दे ज़रा
क्यूँ असर ना करे फ़रियाद तुझे?
नाउम्मीदी से कहा है मैंने
अबके आना तो खाली हाथ आना ...
सपने कुछ ढूँढ़ते हैं मेरा घर
होंगे नुक्कड़ पे, उनके साथ आना

नाउम्मीदी से कहा है मैंने
कि अगले साल तू ज़रूर आना
ऊंचे बदकिस्मती के टीलों से
तू मुझसे मिलने इतनी दूर आना
नज़र लगने का बड़ा खतरा है
कभी उम्मीद ज्यादा अच्छी नहीं
ख्वाब को देखने से टूटने तक
ये कच्ची नींद ज्यादा अच्छी नहीं ...

नाउम्मीदी से कहा है मैंने ...

(चित्र: सम्राट चक्रवर्ती)

Friday, March 9, 2012

आज मैं उसके मोहल्ले में जा के देख आया

आज मैं उसके मोहल्ले में जा के देख आया
वहां वो दिल नशीन जाने कब से रहती नहीं
वो रहा करती थी बेफिक्र सी शेरों में मेरे
पर मेरी शायरी भी उसकी बात कहती नहीं
या वो झूठी थी
या कि लफ्ज़ मेरे झूठे थे
उसके चट्टान से दिल से
हज़ार बार गिरे
मेरे नाज़ुक़ से लफ्ज़
टुकड़ा टुकड़ा टूटे थे
कोई तो होगी बात ऐसे मन धधकता है
वरना लावा की नदी इस तरह तो बहती नहीं

आज मैं उसके मोहल्ले में जा के देख आया
वहां वो दिल नशीन जाने कब से रहती नहीं

Thursday, March 8, 2012

ये क्या हैप्पी विमेंस डे-फे लगा रखा है?


ये क्या हैप्पी विमेंस डे-फे लगा रखा है?
मर्दों को मनाही है विमेंस डे की बधाई देने की
जब तक मेरी कुछ शर्तें न पूरी हो जाएँ
जब तक माँ भी पूरे परिवार के साथ खाना न खाए
जब तक हिंदुस्तान के सारे पापा और भाई
खाने के बाद अपने बर्तन खुद चौके में रखना न सीख जाएँ
गुस्सा निकलने का तरीका माँ-बहन की गालियाँ न हों
बस में कुहनियाँ उस कॉलेज की लड़की को छूने को बेताब न हों
जब शौहर बीवियों से बात करने की तमीज सीख जाएँ
जब गाने मशहूर करने के लिए
औरतों को पानी के नीचे नाचना न पड़े
तब कर लेना विमेंस डे
ये क्या हैप्पी विमेंस डे-फे लगा रखा है?

Wednesday, February 8, 2012

एक बेदर्द से, बेदिल शहर में


एक पुरानी कविता लिखी थी, याद आ गयी सो शेयर कर रहा हूँ ...

छब्बीस जुलाई, २००८ को अहमदाबाद में बम के धमाके हुए और ये तस्वीर अख़बारों में छपी थी ... इस औरत के जीवन की एक काल्पनिक कहानी मैंने इस कविता में लिखने की कोशिश की ...



एक बेदर्द से, बेदिल शहर में
थी इक औरत, नहीं है अपने घर में
सुना है बम ने उसकी जान ले ली

(मगर वो बरसों पहले मर चुकी थी
पुराने ग़म ने उसकी जान ले ली)

एक बेदर्द से, बेदिल शहर में
वो फल वाले के ठेले पर खड़ी थी
थी इक मुट्ठी में थोड़ी रेज़गारी
औ' दूजे हाथ में थैली बड़ी थी
हुआ ज्यों ही धमाका गिर पड़ी वो
कि जैसे खून में लिपटी हुई शाखें गिरी हों
कि जैसे ख्वाब की खुशबू अभी ताज़ा मरी हो

भिंची मुठी में थी पैसों को जकड़े
और इक अमरुद का थैला वो पकडे
वो बस लेटी रही ...
बगल में ठेले वाला भी पड़ा था
लिपट कर खून से,
और अमरुद कितनी दूर तक
बिखरे हुए थे

थी इक औरत, नहीं है अपने घर में
सुना है बम ने उसकी जान ले ली
जुनूं के, रंज के, तकलीफ के
हसीं मौसम ने उसकी जान ले ली

वहीं कुछ दूर पे,
इक छोटे घर में
दो बच्चे बैठे थे खामोश, गुमसुम
अभी टॉफी के ऊपर जंग ताज़ा लड़ चुके थे
कि सोचा सांस ले लें
अभी तो लौटेगी बाज़ार से माँ
औ' फिर अमरुद पे लड़ना पड़ेगा
सुबह से जिद पे थे कमबख्त,
हैं "अमरुद खाने!"
थे माँ के पास कुछ सोलह रुपैय्ये
गयी थी हार कर बाज़ार तक
अमरुद लाने

तुम्हे क्या याद है?
ऐसे ही इक दिन पापा भी
चल कर गए थे
गाँव के घर से
वहां अमरुद का इक पेड़ था
छप्पर के पीछे
(कभी अमरुद की ख़ातिर किसी को
जान थोड़ी देनी पड़ती थी!
थे मरने के वहां
बढ़िया बहाने!)


पढ़ा तो होगा ना अखबार में तुमने
कहीं कोने में शायद
जब उनके बाप ने फाँसी लगायी थी
उसी अमरुद के उस पेड़ से लटका हुआ था
दहकते क़र्ज़ में डूबा हुआ
बीवी की लाल साड़ी से
गला घोंटे हुए
किसान इक और देखो मर गया था

और बाकी गाँव अपने छोड़ कर
जा रहे थे सारे उस बेदिल शहर
नयी बेवा भी उन में चल पड़ी थी
कहीं अमरुद का वो पेड़ पीछे छोड़ आई
हर इक दिन थोड़ा थोड़ा मर रही थी

अहमदाबाद के बाज़ार में,
कोई आतंकवादी क़त्ल करता
इस से पहले मेरे न्यू इंडिया ने
इक चमकती लाल साड़ी को
किसानों के लहू से सुर्ख कर के
गला घोंटा था उसका

एक बेदर्द से, बेदिल शहर में
थी इक औरत, नहीं है अपने घर में
सुना है बम ने उसकी जान ले ली


मगर ये झूठ है यारों!
मगर ये झूठ है यारों!
थी कब का हम ने उसकी जान ले ली ..
थी कब का हम ने उसकी जान ले ली ..


Thursday, January 26, 2012

मैं अक्सर सोचता हूँ ...

मैं अक्सर सोचता हूँ
क्या वो मुझको सोचता होगा?
पलट के देखता हूँ
क्या वो मुझको देखता होगा?
मैं अक्सर सोचता हूँ
इत्तेफकान मुझसे मिलने को
कहीं ख्वाबों के रस्तों पे
संदेसे फेंकता होगा?
मैं अक्सर सोचता हूँ
क्यूँ मैं उसकी राह को देखूं
जहाँ छोड़ा था उसको
वो वहां से चल पड़ा होगा
मैं अक्सर सोचता हूँ
सच नहीं है, झूठ ही होगा
वो जैसा दुनिया कहती है
क्या उतना ही बुरा होगा?
मैं अक्सर सोचता हूँ
ये जो मेरे दिल का नश्तर है
है जिसकी उँगलियाँ थामें
क्या उसको भी चुभा होगा?

Monday, January 16, 2012

UP Yatra with Neelesh Misra: Story 2



“We had heard there was a lady called Mayawati”

Neelesh Misra

Azamgarh:

There is a good chance you’ll miss the man.

Under the long tin roofs at the messy Azamgarh courthouse, lost in the pitter-patter of typewriters, crowds of rural petitioners and the rows of cynical notaries, there is a small black sign on the yellow wall: “Ram Krishna Yadav, Advocate (Ex-MP)”.

Here under this sign, a 75-year-old man sits wrapped in a woollen jacket and muffler, on a tottering old wooden chair, at a shaky table. Some 650 kilometres to the southwest in Bhopal, his first cousin Ram Naresh Yadav lives in the opulent Rajya Bhavan; he is the governor of Madhya Pradesh.

Ram Krishna Yadav handles criminal cases in this eastern Uttar Pradesh rural expanse, standing in court to argue cases related to small land disputes, clashes and dowry charges. There was a time when he used to similarly stand in Parliament to argue on matters on national importance. In 1989, Yadav became one of the three first-ever MPs of the then-fledgling Bahujan Samaj Party, which made its mark even in the pro-Janata Dal wave.

Yadav won from the Azamgarh constituency, after a short quick-fire campaign across the countryside in just one jeep, compared to the well-resourced campaigns of his rivals.

Apart from him, there were two newcomers: Harbhajan Lakha from Phillaur (Punjab), and a rising star in the party called Mayawati from Bijnaur (Uttar Pradesh), later also Yadav’s next-door neighbour at the apartment complex for lawmakers at new Delhi’s North Avenue.

“We had started hearing that there is a lady called Mayawati who was gaining prominence with Kanshi Ram ji – but that was the first time I met her, after we got elected to Parliament,” said Yadav.

They did not hit it off.

“Since that time, she seemed like a very ambitious woman. She said she was a teacher, but she had dreams beyond her capabilities, I used to think,” said Yadav, one of the founding members of the BSP, sitting at the Azamgarh courthouse with fellow lawyers.

The success of Kanshi Ram’s BSP, founded in April 1984, was a significant political ripple at a time when upper and intermediary Hindu castes dominated politics. It won more than 1 million votes right away -- in the 1984 Lok Sabha elections, leading to the first parliamentary success in 1989.

Yadav’s political career began when he was invited to Kanshi Ram’s closed-door dinners with Azamgarh’s political activists, where they discussed strategies to create a niche in the already crowded political space.

Yadav soon gave up his successful legal practice to join politics.

“I had nothing. I was a middle-class criminal lawyer. I have never had even a car in my life, I still don’t,” Yadav said. His former colleague Mayawati’s declared assets are worth Rs. 87 crores.

Kanshi Ram started inviting Yadav to share the stage with him and speak at every other public rally.

“I agreed with him that power of all sorts – whether political or financial, or intellectual -- vested in a few hands and it was time to change that,” Yadav said. “I was hugely impressed with Kanshi Ram ji.”

The mercurial Kanshi Ram headed a new shift in political thinking. He was ready to align with any political rival, saying he would do it as long as it served the interests of his key constituency, the Dalits.

Parliament was dissolved in 1991 after the fall of the Chandra Shekhar government. Yadav and the other BSP lawmakers lost that year in the Congress wave after the Rajiv Gandhi assassination.

In the 1996 elections, a quirk of circumstances saw Yadav being pitted against and losing to his own cousin, former state Chief Minister Ram Naresh Yadav.

“After that, I was left with savings of just over Rs 10,000 then. But I was content,” Yadav said.

The BSP, though, had arrived. In 1996, it was granted the status of a national party.

“But Kanshi Ram’s influence had begin to wane by now. The old guard was being sidelined. Mayawati was gaining control,” Yadav said. In 1998, he quit the BSP.

“The themes and policies for which we had joined the BSP and worked for it -- a socialistic outlook, working for the dispossessed – had vanished from the party,” said Yadav.

“The party’s mission was to go after the three M’s – money, media and mafia. Now all is lost.”



Back to being a reporter: Road trip for UP elections, for TOI


Three years on, those bullets still fly

Neelesh Misra

Sanjarpur (Azamgarh), Uttar Pradesh:

“Abbu, how come those juniors of mine made it to IPL?” cricket-crazy Saif Ahmed asked his father who had travelled to meet his 21-year-old son in the South Delhi room.

It wasn’t a friendly cricket chat over tea for the 51-year-old PCO owner Shadab Ahmed, who had come from his eastern Uttar Pradesh village of Sanjarpur to the Lodhi Road premises. Saif, arrested during the Sept. 19, 2008 Batla House raid in Delhi, has been accused, along with his elder brother, of terrorism in several cities across India. The room belonged to the Delhi Police Special Cell, which had arrested him.

“It’s destiny, I told him … but we are all fighting back,” Shadab Ahmed, said of the meeting as he sat in his large courtyard lined with plants in the dusty, sparse village of Sanjarpur. Children laughed and played somewhere in the background, women trying to shush them.

As Uttar Pradesh heads for crucial state assembly elections that are likely to impact national politics, what happened in that room on that 2008 day continues to create political ripples here. Several parties have tried to bite into the angst created by the Batla House swoop -- Muslim leaders say it raises issues of justice for the Muslim youth it alleges are framed in terror cases. They also oppose the branding of Azamgarh as a terror hub.

The terrorism slur for the Ahmed family started with the oldest of Ahmed’s children, the currently-absconding Dr Shahnawaz, who has been accused in several terror cases.

“Let there be a judicial inquiry and let them be punished if they are found guilty,” Shadab Ahmed said.

Saif was in the bathroom at the Batla House, a cobweb of lanes near the Jamia Millia University, as commandos stormed his room. He was arrested and two of his roommates, Atif Amin and Mohammed Sajid, killed. They were all accused by police of being members of the terror outfit Indian Mujahideen. According to his father, Saif says he has been framed.

The police raid became the sole provocation for the creation in 2009 of a new political party called Rashtriya Ulema Council, which hired trains to take supporters to New Delhi to oppose the cases. The party is contesting 70 of the 403 seats in the elections.

Main opposition Samajwadi Party asked for judicial inquiry and a joint parliamentary committee probe, a demand turned down by Home Minister P. Chidambaram.

“Batla House remains on the political consciousness of people here,” Prof K K Mishra, a political analyst at the Banaras Hindu University. “It will have an impact.”

Another expert, Prof Ghayas Asad Khan of Azamgarh’s leading Shibli College, said the impact of the issue had waned.

“Wounds might have healed, and people might start forgetting – though when political activities start, Batla House emerges again,” he told TOI.

Congress Party leader Digvijay Singh visited Ahmed in this dusty, sparse village and met Saif’s family, provoking the Bharatiya Janata Party to retort that he should visit the families of Pakistan-based terrorists as well. The state’s ruling Bahujan Samaj Party has been criticised by Azamgarh residents of sending out all such accused to investigators in other states, to avoid dealing with issues of justice.

“My son is not a terrorist. He had gone to do a computer course … I thought he would make a living. Otherwise I wouldn’t have let him go there,” said Shadab Ahmed.

“He was a brilliant batsman. He won so many tea sets in competitions ... I would reluctantly let him go outstation to play when his friends insisted. If he was around, he would have been a big cricketer,” said Ahmed, referring to his son in the past tense. “Many of his juniors have gone to this championship, whats-it-called … IPL. I told him, `its destiny’.”

Ahmed says he does not know the whereabouts of his elder son, Shahnawaz.

“He is wanted. Allah knows where he is. Whichever case is unsolved, police put it on him,” he said. “I have a great complaint against the media. The moment a blast happens, they start talking as if they know exactly who did it. If you do, why not have them punished?”

As courts decide whether the two men are guilty, there are dozens of other youth from Azamgarh who are in jails in similar cases, and residents of the district routinely bear the brunt of its negative branding.

“This blot of terrorism on Azamgarh is affecting our children very badly,” said Ahmed.

“Our children don’t get a place to stay in Delhi and Bombay. Even Hindu children. There are bright kids who cannot go,” he said. “People are told, “You are from Azamgarh? You must be a terrorist.”

(This story originally appeared in The Times of India, as part of the ongoing series "UP Yatra With Neelesh Misra")

Monday, September 19, 2011

आज मंडे को इक ख़याल आया

आज मंडे को इक ख़याल आया
थका बुझा सा खस्ताहाल आया
कहे "शायर जी, दे दो शक्ल मुझे"
मैंने बोला, खुदा दे अक्ल तुझे
बंदा गुस्से में मुझसे कहता है
अगरचे मैं नहीं तो तू क्या है?
तू है शायर बना तो ज़ाहिर है
कहीं पे अक्ल तू भी डाल आया
आज मंडे को इक ख़याल आया

Tuesday, August 16, 2011

जो आ जाता दबे पाओं



जो आ जाता दबे पाओं

कभी तू रौशनी के घर

अँधेरे का लगा टीका

बलाएँ तेरी ले लेते



जो आ जाता तू ले नश्तर

बिना सोचे हम अपने सर

करी हैं जो, करेगा जो

खताएँ तेरी ले लेते


जो वापस लौट आता तू
यूँ करते फिर न जाता तू
कि रस्ते तेरे ले लेते
दिशाएँ तेरी ले लेते

अँधेरे का लगा टीका

बलाएँ तेरी ले लेते ...

Friday, August 12, 2011

इक रोज़ बयाबान में ...


इक रोज़ बयाबान में
देखा तो था हैरान मैं
आकाश पे जड़ा था
बादल से जो कूदा था
तेरे ग़म का वो लम्हा था
तन्हाई का मुखड़ा था
इक मोती सा टुकड़ा था
कोई भेस नया धर के
कहीं दूर से उतरा था
कुछ और कहाँ था वो
तेरी आँख का कतरा था ...

कुछ और कहाँ था वो
तेरी आँख का कतरा था ...

Friday, July 15, 2011

बग़ावत होगी इक दिन, तब मिलेंगे

किसी ने कर दिया छलनी है मुझको

कहीं पे जा के वो बैठा हुआ है

न रो इतना, कि तेरे आंसुओं पे

मेरा कातिल कहीं पे हँस रहा है

बचा के रख तू ये तकलीफ अपनी

धधकने दे इसे, शोले खिलेंगे

बस इतना कह दे जा के रहनुमा से

बग़ावत होगी इक दिन, तब मिलेंगे
(All photos by the author, except when credit mentioned otherwise)